Wednesday, September 3, 2008

'जाएँ तो जाएँ कहाँ?'


बिहार में आई बाढ़ का नज़ारा हमें उस समय दिखा जब हम मधेपुरा पहुँचे. वहाँ से आगे बढ़ते हुए हमारा सामना बाढ़ पीड़ितों से हुआ जो आक्रोश से भरे हुए थे.
शहर की हालत यह की जहाँ तक हमारी नज़र जा रही थी हमें सिर्फ़ पानी ही पानी नज़र आ रहा था. मकान डूबे हुए थे, दुकानें डूबीं हुई थीं और कुछ आदमी भी पानी में डूबे हुए मिले.
मधेपुरा के कुछ गाँवों में सन्नाटा पसरा था, खामोशी छाई थी और पूरे के पूरे गाँव ही खाली थे. वहाँ न इंसान थे, न जानवर.
पानी ही पानी
मधेपुरा से पूर्णिया जाने वाली सड़क पर जो मंजर मैंने देखा उसे शब्दों में बयान कर पाना आसान नहीं है. यह सड़क आगे जाकर दस फुट पानी में डूबी हुई है. आगे कोई रास्ता नहीं है, सिर्फ़ पानी ही पानी.
इस पूरे रास्ते पर मुझे लोग शहर की ओर भागते हुए नज़र आए. कुछ लोग अपने जानवरों को हाँक कर ले जा रहे थे तो कुछ अपने बच्चों को साइकिल पर बैठाए हुए भाग रहे थे. कुछ लोग अपने जीवनभर की बची हुई कमाई को बैलगाड़ी पर लादे हुए भागे जा रहे थे. ऐसे लोगों की संख्या एक-दो या सौ-पचास नहीं बल्कि हज़ारों में थी.
ये लोग भाग तो रहे थे पर उन्हें यह नहीं पता था कि जाना कहाँ है. न खाने का ठिकाना और न सिर पर छत....बाढ़ सब कुछ लील चुकी है.
इस सड़क पर पंद्रह किलोमीटर दूर तक ऐसी कोई जगह नहीं है, जहाँ लोग न हों. सड़क के किनारे पर लोग ऊँचे-ऊँचे मचान बना रहे हैं, जिससे की अगर फिर बाढ़ आए तो कम से कम वे अपनी जान तो बचा सकें. यही नज़ारा मधेपुरा की अन्य सड़कों पर भी दिखा.
ज़िंदगी की खोज
कलेक्ट्रेट के रास्ते पर छोटी-बड़ी नावों से लदे हुए क़रीब दस ट्रक खड़े थे और कलेक्ट्रेट ऑफ़िस में उन लोगों की भीड़ जमा थी जो अपने परिजनों को बचाने की गुहार लगा रहे थे. वह कह रहे थे कि हमारे माँ-बाप मर रहे हैं कोई तो उन्हें बचा ले.
लोगों की आँखों में पानी के ख़ौफ़ को साफ़ देखा जा सकता है. मगर उनके सामने यह सवाल अब भी खड़ा है कि पानी से भागकर जाएँ तो जाएँ कहाँ. मैंने लोगों को घर छोड़ते हुए तो देखा था, लेकिन हज़ारों-हज़ार लोगों को गाँव छोड़ते हुए पहली बार देख रहा था.
दहशत की दहलीज़ पर ज़िंदगी बचाने के लिए जाते हुए लोगों के दर्द से मेरा दिल भी दहल गया. इनके सामने तो बस एक ही सवाल है कि जाएँ तो जाएँ कहाँ.

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